भारतीय फिल्मी जगत के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के की 79 वीं पुण्यतिथि पर लोगो ने किया याद।
दादा साहब फाल्के ने ही भारत में सर्वप्रथम महिलाओं को दिया था फिल्म में मौका।
राजीव रंजन।
– राजा हरिश्चंद्र नामक फिल्म भारत की पहली फीचर फिल्म इन्हीं की देन थी ।
– स्वयं को स्थापित करने कभी जर्मनी तो कभी लंदन पहुंचे थे दादा साहब फाल्के।
पटना,भारतीय फ़िल्म उद्योग के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के जिनका पूरा नाम धुंडिराज गोविन्द फाल्के था । 30 अप्रैल 1870 को महादेव की नगरी त्रयंबकेश्वर (मुंबई प्रेसिडेंसी ,ब्रिटिश भारत) में इनका जन्म हुआ । चुंकि उनके पिता मुम्बई के ‘एलफिंस्टन कॉलेज’ के अध्यापक थे और संस्कृत के प्रखंड विद्वान थे इसलिए फाल्के की शिक्षा दीक्षा मुंबई में ही हुई । उन्होंने उसके बाद जमशेदजी जीजीभॉय स्कूल ऑफ़ आर्ट्स जो मुंबई विश्वविद्यालय के अंतर्गत है वहां से
कला की शिक्षा ग्रहण की फिर फिर बड़ौदा के कलाभवन में रहकर फोटोग्राफी के क्षेत्र में भी ज्ञान अर्जित किया । बहुत कम लोग जानते हैं कि दादा साहेब मंच पर अनुभवी अभिनेता होने के साथ-साथ शौकिया जादूगर भी थे ।
दादा साहेब के कार्य क्षेत्र की बात करें तो उन्होंने कुछ समय के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में भी काम किया था।
उसके बाद उन्होंने अपना एक प्रिंटिंग प्रेस खोला । प्रेस के उपकरण हेतु वो जर्मनी तक गए थे । लेकिन सन् 1910 में उनके व्यावसायिक साझेदार ने नसे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया जिसके कारण उन्हें व्यवसाय में बहुत हानि हुई।
इस घटना का उन पर गहरा असर पड़ा और उनका स्वभाव भी थोड़ा चिड़चिड़ा सा हो गया था ।
फिर उसके बाद उनके जीवन में एक रचनात्मक मोड़ आया, उन्होंने 1911 में मुंबई के वाटसन होटल में ईसा मसीह के जीवन पर आधारित चलचित्र ‘ लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट’ को देखा। फिल्म को देखने के बाद उनके मन में यह विचार आया कि वह भारत के पौराणिक कथाओं के ऊपर चलचित्र बना कर सनातन धर्म के देवी देवताओं का उल्लेख कर सकते हैं। इसके लिए उन्होंने सिनेमा के बारे में और अधिक जानकारी जुटानी शुरू कर दी, वो अत्यधिक शोध और अध्ययन करने लगे, दिन–रात 20-20 घंटा काम करने लगे परिणाम स्वरूप वो बीमार भी पड़ गए । उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा था और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर भी पड़ा ,उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रख दिये थे। अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई ,फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। आवश्यकता उपरांत उन्होंने अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।
हालांकि चलचित्र का निर्माण उस समय विदेशी उपक्रम था और जिस अनिवार्य तकनीकी की जरूरत उन्हें थी वह उस समय भारत में उपलब्ध नहीं था लेकिन अपने दृढसंकल्प के कारण सिनेमा में उपयोग किए जाने वाले आवश्यक उपकरण खरीदने और फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने हेतु सन् 1912 में लंदन चले गए। जहां उनकी मुलाकात उसे समय के जाने-माने निर्माता और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के सम्पादक सेसिल हेपवोर्थ से हुई, सेसिल ने फाल्के को फिल्म सामग्री खरीदने हेतु आवश्यक मदद की और साथ ही साथ इनका मार्गदर्शन भी किया ।
लंदन से वापस आकर उन्होनें दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फाल्के फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। 1913 में इन्होंने राजा हरिश्चंद्र के ऊपर चलचित्र बनाने का कार्य शुरू किया जो भारत की पहली फीचर फिल्म थी और दादा साहब फाल्के ने 30 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलम्पिया सिनेमा हॉल में ‘राजा हरिश्चंद्र’ नामक चलचित्र दर्शकों को दिखाया। इतिहास गवाह है कि इस चलचित्र की शूटिंग में उन्हें कई सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि उस समय कोई और मानक ना होने के कारण सारी व्यवस्थाएं इन्हें खुद देखने व करनी पड़ी । उस समय महिलाओं को चलचित्र में काम करने से मना कर दिया जाता था, परिणामस्वरूप उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार ही थे। होटल के एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। फिल्म रिलीज के उपरांत पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की, लेकिन फाल्के जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म लोगों ने खूब पसंद किया और फिल्म सुपरहिट रही ।
20 वर्षों में उन्होंने कुल 95 फ़िल्में और 26 लघु फ़िल्में बनाई। दादा साहब फाल्के के फ़िल्म निर्माण की ख़ास बात यह है कि उन्होंने अपनी फ़िल्में मुंबई के बजाय नासिक में बनाई।
वर्ष 1913 में उनकी फ़िल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले, ने महिला किरदार निभाया। इन फ़िल्मों के हिट होने से फाल्के लोकप्रिय हुए और तब से हरेक फ़िल्म के 20 प्रिन्ट ज़ारी होने लगे, उस समय की परिस्थितियों में यह एक महान् उपलब्धि थी। 1917 तक वे 23 फ़िल्में बना चुके थे। उनकी इस सफलता से कुछ व्यवसायी इस उद्योग की ओर आकृष्ट हुए और दादा साहब की साझेदारी में ‘हिन्दुस्तान सिनेमा कम्पनी’ की स्थापना हुई। दादा साहब ने कुल 125 फ़िल्मों का निर्माण किया। जिसमें से तीन-चौथाई उन्हीं की लिखी और निर्देशित थीं। दादा साहब की अंतिम मूक फ़िल्म ‘सेतुबंधन’ थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई। उस समय डब करना भी एक शुरुआती प्रयोग था। दादा साहब ने एकमात्र बोलती फिल्म ‘गंगावतरण’ बनाई ।
इन फ़िल्मों में कुशल तकनीक के रुप में ‘स्पेशल इफ़ेक्ट’ और ‘ट्रीक फ़ोटोग्राफ़ी’ का प्रयोग दर्शकों के आकर्षण का कारण बना, यह फिल्मी जगत के लिए एक क्रांतिकारी पहल थी।
फिर धीरे-धीरे वक्त बीतता गया और सन् 1938 में भारतीय सिनेमा ने रजत जयंती पूरी की। इस अवसर पर चंदुलाल शाह और सत्यमूर्ति की अध्यक्षता में सामारोह आयोजित हुआ, दादा साहब फाल्के को बुलाया गया किन्तु उन्हें कुछ विशेष सम्मान नहीं मिला। समारोह में उपस्थित ‘प्रभात फ़िल्मस’ के शांताराम ने फाल्के की आर्थिक सहायता की पहल करते हुए वहां आए निर्माताओं, निर्देशक, वितरकों से धनराशि जमाकर फाल्के को भेज दिया। इस राशि से नासिक में फाल्के के लिए घर बना और उन्होंने अपने जीवन का अंतिम क्षण वहीं बिताया ।
16 फ़रवरी, 1944 को नासिक में ‘दादा साहब फाल्के’ का निधन हो गया। उन्होंने फिल्म जगत को अकेला छोड़ दिया लेकिन उनकी जलाई लौ आज भी कई लोगों के सीने में धधक रही है l
फाल्के शताब्दी वर्ष 1969 में भारतीय सिनेमा की ओर से फाल्के के अभूतपूर्व योगदान के सम्मान में ‘दादा साहब फाल्के सम्मान’ शुरु हुआ। इस पुरुस्कार को सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारत के राष्ट्रपति स्वयं प्रदान करते हैं l फिल्म क्षेत्र में यह सबसे बड़ा और सम्मानीय पुरुस्कार है | यह पुरुस्कार फिल्म क्षेत्र में सभी प्रकार के विशिष्ट और उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है | इस पुरुस्कार में 2 लाख रूपये की राशि और स्वर्ण कमल दिया जाता है | दादा साहब फाल्के के सम्मान में भारत सरकार ने 1971 में डाक टिकट जारी किया था l
दादा साहेब फाल्के को गूगल ने उनकी 148वीं जयंती पर (30 अप्रैल, 2018 ) डूडल के जरिए याद किया था। गूगल के अनुसार आज का डूडल दर्शाता है कि युवा दादा साहेब भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहले दौर के कुछ रत्नों को निर्देश देते हुए दिखाई दे रहे हैं। गूगल के अनुसार, एक विद्वान के पुत्र फाल्के को कला, विविध वस्तुओं के अध्ययन, फोटोग्राफी, लिथोग्राफी, आर्किटेक्चर, इंजीनियरिंग और जादूगरी में गहरी अभिरुचि थी।
दादासाहेब फालके की कुछ प्रसिद्ध फिल्में :
राजा हरिश्चंद्र (1913), लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, गंगावतरण,संत तुकाराम, सेतू बंधन, सत्यवान सावित्री इत्यादि शामिल हैं l देश आज फिल्म जगत में बहुमूल्य योगदान देने के लिए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है l