भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन भी रमन्ना का यह कहना कि, बिहार सरकार का शराबबंदी क़ानून एक अदूरदर्शि कदम है, अपनें आप में इस शराबबंदी की पूरी कहानी बतलाता है। जेल में बंद आज हर तीसरा व्यक्ति शराबबंदी के केश में बंद है। चार लाख से अधिक लोगों के विरूद्ध मात्र 1 प्रतिशत लोगों का ही दोषसिद्धि हो पाया है। इन चार लाख लोगों में अधिकांश लोग दलित, महादलित, पिछड़े एवं गरीब परिवार से आते हैं। सच तो यह है कि ये चार लाख लोग नहीं वरन चार लाख परिवार सलाख़ों के पीछे है। अगर बिहार सरकार इन परिवारों के कमाऊ आदमी को सलाख़ों के पीछे कर दी है तो उनके परिवार के भरण पोषण का क्या इंतज़ाम किया है? उन्हें तो भीख माँगने, दर दर भटकनें सड़क पर छोड़ दिया है। कौन है उनका माई-बाप? शराबबंदी के मामले में पकड़े गये लोगों के कारण आज बिहार के हर जेल अपनी क्षमता से अधिक लोगों को रखे हुए है और वहाँ भी कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ रही है।बिहार सरकार के ऑंकडे बतलाते हैं कि जब से शराबबंदी क़ानून लागू हुआ है तब से लेकर आज तक 3,48,170 लोगों के विरूद्ध मुक़दमा दर्ज हुआ है और 4,01,855 लोगों की गिरफ़्तारी हुई है। इनमें एक प्रतिशत से भी कम लोगों के उपर दोष सिद्ध हो पाया है। हज़ारों की संख्या में बेल के आवेदन उच्च न्यायालय एवं निचली अदालतों में लंबित है। लोगों की गिरफ़्तारियाँ लगातार बढ़ते जा रही है। यह प्रमाणित हो चुका है कि 2016 का शराबबंदी क़ानून पूरी तरह से असफल है, जबकि पूरी पुलिस प्रशासन इसी के पीछे लगी है। एक समांतर अर्थ व्यवस्था राज्य में चल रही है, जिसमें सबकी भागीदारी है। समय आ गया है कि इस क़ानून का रिव्यू हो और इसे सही ढंग से लागू किया जाय।
हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी राजनीति में हैं और सत्ता सुख भोग रहे, कोई समाज सुधारक या साधु महात्मा नहीं हैं। अंत: समाज सुधार के ढोंग को छोड़ व्यवस्था सुधार करें तो राज्य के हित में होगा।शराबबंदी के ख़िलाफ़ हम नहीं हैं लेकिन इस काले क़ानून के समीक्षा की आवश्यकता है।